ब्लाग पर अकसर अमृता और इमरोज के बारे में लिखी गई पोस्ट पर जो कमेंट आते हैं उनमें इमरोज के होने या फिर उन जैसा होने पर ताज्जुब किया जाता है। कुछ उन्हें बहुत उम्दा इंसान भी बताते हैं मैंने इमरोज से पूछा, क्या आप जानते हैं कि अमृता को पढ़ कर कुछ ऐसी भी हैं जो अपने हिस्से के इमरोज को ढूढ़ती हैं। वे अपनी सरल मुसकान होठों पर ला कर कहते हैं, इसके लिये पहले अमृता होना पड़ता है। वे सच कहते हैं, आज की औरत भले ही कितना भी आगे जा चुकी है, तरक्की कर चुकी है, लेकिन वह अपनी मर्जी से जीने के लिये सोच भी नहीं सकती है। अगर उसने ऐसा किया तो उसे समाज की नाराजगी झेलनी पड़ती है। अमृता होना आसान नहीं, बहुत कठिन है। हालात की तल्लखियों को झेलना आसान नहीं होता है, अमृता ने झेला, ओढ़ा और अपने भीतर कहीं जज्ब कर लिया जो समय समय पर सृजन के रूप में अक्षर अक्षर होता रहा।
इमरोज को जब अमृता मिलीं ......उस समय दोनों के बीच न कोई सवाल था न जवाब। बस एक अहसास था जिसे दोनों रूह से महसूस करते थे। इमरोज कहते हैं , जो एक दूसरे को समझते हैं, पसंद करते हैं, वे सवाल कहां करते हैं। जब सवाल नहीं तो जवाब की दरकार कहां रह जाती है। इमरोज के अल्फाजों में.........
एक बार
वक्त ने पूछा
ये तेरी क्या लगती है
मैंने हंस कर वक्त से कहा
अच्छा लगता
अगर सवाल ये होता
ये तेरी क्या क्या नहीं लगती है ??
आज के दिन अमृता इस जहाँ से हमेशा के लिए चली गईं ......
ख़ुद ही ये भी कह गईं
कैसी है इसकी खुशबू
फूल मुरझा गया पर महक नहीं मुरझाई
कल होठों से आई थी
आज आंसुओं से आई है