Thursday, February 27, 2014

अमृता को रूलाता था शिव


अमृत प्रीतम से शिव कुमार का दिली रिश्ता था। एक दिन बातों बातों बताया    में अमृता जी ने बताया बड़ा  प्यार था मेरा वीर। लालकिले पर 26 जनवरी को कई  मुशायरे   साथ    किए लेकिन फिर इसी तारीख में एक दुख शामिल हो गया।
उसकी बात    अमृता की एक कहानी के जरिए करेंगे लेकिन अमृता का लिखा एक पत्र शिव के लिए किस कदर प्यार और दर्द भरा है।

शिव भाई
आपकी कविता ने मेरे से उतना लिखवाया नहीं है जितना कि रूलाया है। आपका दर्द हमेशा जीता रहे। पता नहीं यह वरदान है या श्राप। जोााहर से श्राप से दिखता होगा लेकिन फिर भी इसके अंदर एक वरदान छिपा हुआ है।
जो लिखा है , हाजिर है।

आपकी दीदी, अमृता

Saturday, March 7, 2009

ऐ वूमेन विद माइंड


एक दिन अमृता और इमरोज चले जा रहे थे, अमृता ने इमरोज से पूछा, क्या तुमने कभी वूमेन विद माइंड पेंट की है? यह बात 1959 की है। चलते चलते इमरोज रूक गये। उन्होंने अपने इधर उधर देखा, उत्तर नहीं मिला। दूर तक भी देखा, जवाब का इंतजार किया लेकिन कोई आवाज नहीं आयी। इसके बाद इमरोज उत्तर खोजने निकल पड़े और पेंटिंग के क्लासिक काल में ताकि अमृता की सोच वाली औरत और औरत के अंदर वाली औरत की सोच, उसके रंग कहीं दिख जाएं लेकिन ऐसे रंग और पेंटिंग कहीं नहीं मिली। इमरोज हैरान हो गये, अपने उपर भी और समाज पर भी , कहीं वैसी औरत नहीं मिली जो अमृता की सोच से मेल खा सके। किसी भी चित्रकार ने औरत को एक जिस्म से अधिक कुछ नहीं सोचा था। जिस्म के साथ केवल सोया जा सकता है, अगर औरत को औरत माना जाता तो उसके साथ जागने की बात भी होती। ऐसा किसी पेंटिंग में दिखायी नहीं दिया इमरोज को। अगर औरत के साथ जाग के देखा होता औरत की जिंदगी बदल गई होती। जिंदगी जीने लायक हो जाती। अमृता ने जिस औरत की पेंटिंग करने के लिये कहा था, वह पेंटिंग इमरोज 1966 में बना पाए।


Sunday, January 11, 2009

तीन दिन अब सारे मेरे

कई बार तकदीर को आने वाले दिनों का अनुमान हो जाता है लेकिन इसके बारे में और कोई नहीं जान सकता। होनी को पता था कि कविता और पेंटिंग की किसमत तीन दिनों में लिखनी है। बाद में अमृता और इमरोज के जीवन के ये तीन दिन ऐसी महक ले कर आये जिससे उनकी प्यार की बगिया तीन कालों तक महकती रही।

तीन दिनों की भी एक कहानी है जब अमृता और इमरोज साथ साथ नहीं रहते थे।यूंही एक दिन अमृता को इमरोज ने बताया कि उसे एक नौकरी मिल गई है, वह मुंबई जा रहे हैं। अमृता यह जान कर तो खुश हुई कि अपनी खुशी को सबसे पहले इमरोज ने उसी के साथ बांटा है लेकिन यह सोच का उदास हो गई कि इमरोज दूर चले जायेंगे। उस दिन अमृता ने आंखों की नमी को किताब के पीछे छिपा लिया, कहा कुछ नहीं। जाने में तीन दिन थे, अमृता ने इमरोज से कहा, अब ये तीन दिन मेरे हैं, इन्हें मैं अपने हिसाब से खर्च करूंगी।

बहुत बाद में उन तीन दिनों को अमृता की कलम ने कुछ यूं कहा

कलम ने आज गीतों का काफिया तोड़ लिया है

मेरा इश्क यह किस मुकाम पर आ गया है

उठो अपनी गागर से पानी की कटोरी दे दो

मैं राहों के हादसे उस पानी से धो लुंगी

सालों साल गुजर जाने के बाद इमरोज ने उन तीन दिनों को अपनी नज्म में कुछ यूं उतारा।


हम मस्त चल रहे
थे
यह बात तब की है

जब मैं दिल्ली छोड़ कर

दूसरे शहर रवाना हो रहा था
वहां मुझे मेरी मर्जी का काम मिल रहा
था
जाने में अभी तीन दिन बाकी
थे
और तुमने कहा थाये तीन दिन अब सारे मेरे

मौसम पीले फूलों का
था
सड़कें बाग बगीचे पीले फूलों की महक से सराबोर
थे
हमने सारा दिन पीले फूलों के बीच
गुजारा
एक दूजे को चुपचाप देखते हुए

नजरों से एक दूसरे को

कुछ कहते कुछ सुनते हुए

पीले फूल हम पर बरस रहे
कभी हमारे होंठो
पर
कभी हमारे दिलों
पर
कभी हमारी सोचों
पर
वक्त को तो नहीं

लेकिन खामोशी को कहीं यह पता था

कि ये तीन दिन जिंदगी के
के
तीनकाल बन जाएंगे

Thursday, December 4, 2008

फलक से उतरी बातें

प्यार करने वाले कुछ अलग होते हैं, उनकी बातें भी फलक से उतरी हुई सी लगती हैं। उनके भावों में महापुरुष आ कर बैठ जाते हैं जिन्हें सारे कालों का ज्ञान होता है। ऐसे ही पल का जिक्र जब इमरोज से किया तो बोले,

एक बार अमृता और मैं सड़क पर चले जा रहे थे, तब हम साथ साथ नहीं रहते थे। अमृता को न जाने क्या सूझी, रूकी और पूछने लगीं,

तू पहले वी किसे ना इंज तुरिया एं
(तुम पहले भी इस तरह से किसी के साथ चले हो )

मैंने कहा,

मैं तुरिया ते बोत हां पर किसे नाल जागिया
(चला तो बहुतों के साथ हूं लेकिन जागा किसी के साथ नहीं।)

मेरी बात सुन कर अमृता ने मुझे गौर से देखा , जैसे कुछ जानने और समझने का प्रयास कर रही हो, फिर कुछ मिनट बाद उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और वो मेरा हाथ पकड़ कर ऐसे चलने लगी जैसे उसने सारी हदे। सरहदें पर कर ली हो, उसके चेहरे पर एक अनोखा गर्व मैंने उस दिन महसूस किया। उस दिन एक गहरे रिश्ते ने जन्म ले लिया था।


आगे चल कर उनका यह रिश्ता ऐसा बना जो रगों में बहते खून की तरह हो गया। सच तो यह है कि उन्होंने अपने जीवन में ऐसे रिश्ते को पहली बार महसूस किया था।


एक जगह अमृता ने लिखा भी है,रिश्ते भी बड़ी अजीब चीज हैं। इनके अर्थ भी अलग हैं। कोई रिश्ता गले में पहने हुए कपड़े की तरह से होता है जिसे कभी भी गले से उतारा जा सकता है पर कोई रिश्ता नसों में बहते हुए खून की तरह से होता है जिसके बिना इंसान जिंदा नहीं रह सकता है। कोई रिश्ता ऐसा भी होता है जो बदन की खुजली की तरह से होता है , नाखूनों से खरोंच कर उसे कोई जितना भी हटाना चाहे, उतना ही वह बदन की चमड़ी में रसे जाता है। रिश्तों की इतनी गहरी बयानी अमृता ने क्यों कर की, ये फिर कभी सही----

Monday, November 10, 2008

ऐसी थी मेरी अमृता

इमरोज को अमृता कितना चाहती थी, उन्हें किस रूप में देखती थी, इसके लिये किसी शब्दकोष में कोई शब्द उपलब्ध नहीं है। इएरोज अमृता के लिए क्या थे इसे आप महसूस कर सकते हैं . अमृता के कहे शब्दों में, ''वे चांद की परछाइयों में से रात के अंधेरे से उतरे और मेरे सपनों में चले ''''एक दिन उन्हें कोई घर ले आया। वे बंबई से लौटे एक पेंटर थे, सुंदर चित्र बनाते थे, उनका नाम इमरोज था। मुझे वे बिलकुल खमोश से लगे, जैसे कुछ बोलते ही न हों। फिर मुझे लगा, जैसे वे मुझसे कुछ कह रहे ''।

मैंने इमरोज से पूछा , आप क्या सोचते हैं अमृता के बारे , उनके वजूद के बारे में। वे हंस दिये और अपनी एक नज्म सुनाने लगे।
उन्होंने नज्म पंजाबी में सुनायी जिसे मैं हिंदी में अनुवाद कर प्रस्तुत रही हूं । नजम का नाम है ''मनचाही ''


सपना सपना हो कर
औरत हुई
और अपनी मर्जी का सोचा

फिक्र फिक्र हो के
कविता हुई
वारिस शाह को जगाया
और कहा
देख ले
अपने पंजाब को लहुलुहान

मोहब्बत मोहब्बत हो कर
राबिया हुई
किसी को भी
नफरत करने से इंकार किया
और अपने वजूद से बताया
कि मोहब्बत कभी नफरत नहीं करती

जिन्दगी जिंदगी हो कर
वो मनचाही हुई
मनचाहा लिखा
और मनचाहा जिया


पूछा, राबिया कौन थी, वे बोले, जिसने पवित्रा कुरआन से खिलाफत कर दी थी

Friday, October 31, 2008

फुल मोया पर महक न मोई

ब्लाग पर अकसर अमृता और इमरोज के बारे में लिखी गई पोस्ट पर जो कमेंट आते हैं उनमें इमरोज के होने या फिर उन जैसा होने पर ताज्जुब किया जाता है। कुछ उन्हें बहुत उम्दा इंसान भी बताते हैं मैंने इमरोज से पूछा, क्या आप जानते हैं कि अमृता को पढ़ कर कुछ ऐसी भी हैं जो अपने हिस्से के इमरोज को ढूढ़ती हैं। वे अपनी सरल मुसकान होठों पर ला कर कहते हैं, इसके लिये पहले अमृता होना पड़ता है। वे सच कहते हैं, आज की औरत भले ही कितना भी आगे जा चुकी है, तरक्की कर चुकी है, लेकिन वह अपनी मर्जी से जीने के लिये सोच भी नहीं सकती है। अगर उसने ऐसा किया तो उसे समाज की नाराजगी झेलनी पड़ती है। अमृता होना आसान नहीं, बहुत कठिन है। हालात की तल्लखियों को झेलना आसान नहीं होता है, अमृता ने झेला, ओढ़ा और अपने भीतर कहीं जज्ब कर लिया जो समय समय पर सृजन के रूप में अक्षर अक्षर होता रहा।
इमरोज को जब अमृता मिलीं ......उस समय दोनों के बीच न कोई सवाल था न जवाब। बस एक अहसास था जिसे दोनों रूह से महसूस करते थे। इमरोज कहते हैं , जो एक दूसरे को समझते हैं, पसंद करते हैं, वे सवाल कहां करते हैं। जब सवाल नहीं तो जवाब की दरकार कहां रह जाती है। इमरोज के अल्फाजों में.........

एक बार
वक्त ने पूछा
ये तेरी क्या लगती है
मैंने हंस कर वक्त से कहा
अच्छा लगता
अगर सवाल ये होता
ये तेरी क्या क्या नहीं लगती है ??

आज के दिन अमृता इस जहाँ से हमेशा के लिए चली गईं ......
ख़ुद ही ये भी कह गईं

कैसी है इसकी खुशबू
फूल मुरझा गया पर महक नहीं मुरझाई
कल होठों से आई थी
आज आंसुओं से आई है

Wednesday, October 22, 2008

मुझे एक अनकही कविता नजर आती है

ब हम किसी से प्यार करते हैं तो उसे जताने या बताने की जरूरत नहीं होती है, वो अपने आप गहराता है और एक खुशबू की तहर से हमारे आसपास बिखर रहता है। कई बार हमारे नजदीक से गुजरने वाले भी उस भाव को जानने लगते हैं । सज्जाद हैदर अमृता के काफी अच्छे दोस्त थे। यह बात इमरोज को पता थी। एक बार इमरोज और अमृता ने मिल कर सज्जाद को खत लिखा तो सज्जाद ने जवाब दिया, ''मेरे दोस्त मैं कभी तुमसे मिला तो नहीं लेकिन अमृता के खतों से जो मैंने तुम्हारी तस्वीर बनायी है, उससे मैं तुम्हे जानने लगा हूं, तुम खुशनसीब हो, मैं तुम्हें सलाम करता हूं।'' अमृता इमरोज से कभी कुछ छिपाती नहीं थी। अपनी मौत से पहले सज्जाद ने अमृता को लिखे सारे खत वापस लौटा दिये। बात कुछ भी नहीं थी, अमृता के दिल में पता नहीं क्या आया, अमृता ने इमरोज को कहा, ''लो पढ़ लो '' इमरोज ने कहा ''नहीं, इसकी जरूरत नहीं है।'' अमृता ने कहा , ''तो जला दो, '' इमरोज ने जला दिये। इमरोज कहते हैं, अमृता ने अपने प्यार का इजहार कभी खुले 'शब्दों में नहीं किया, न ही मुझे इसकी जरूरत पड़ी। इमरोज और अमृता का रिश्ता अनोखा रिश्ता था जिसकी न तब कोई परिभाशा थी न आज। दरअसल, अमृता ने जो दुशाला ओढ़ा , वह सिर्फ़ इमरोज की मोहब्बत से महकता था। मेरी जब भी इमरोज से बात होती है, वे कहते हैं, ''मैं ठीक हूं,खुश हूं'' लेकिन मन कई सवाल करता है और इमरोज को देख कर उनके जवाब मिल जाते हैं .इमरोज कहते हैं

ओ जदों वी मैनूं मिलन आंदी है
मैंनूं इक अनलिखी कविता दिसदी है
मैं इस अनलिखी कविता नूं किन्नी वार लिख चुका हाँ
फेर वी एह कविता अनलिखी रह जांदी है
कि पता
एह अनलिखी कविता लिखन वास्ते न होवे
सिर्फ मनचाही जिंदगी वास्ते होवे
(हिंदी अनुवाद)
वो जब भी मुझे मिलने आती है
मुझे एक अनकही कविता नजर आती है
मैं इस अनलिखी कविता को कई बार लिख चुका हूं
फिर भी ये कविता अनलिखी रहजाती है
क्या पता
ये अनलिखी कविता
लिखने के लिये न हो
सिर्फ मनचाही जिंदगी के लिये हो