Wednesday, September 24, 2008

और वक्त पास खड़ा देखता रहता.........

मैंने जितना भी अमृता प्रीतम जी के बारे में जाना, अब उतना ही इमरोज जी के बारे में भी जानने का जी चाहता है। वैसे भी अमृता का जिक्र हो तो इमरोज का जिक्र आना लाजमी ही है। अमृता जी के जरिये ही जाना कि इमरोज पंजाब के रहने वाले हैं। पर यह कभी नहीं जाना कि वे पंजाब के किस स्थान के रहने वाले हैं । कल अचानक इमरोज से बात करने का मन हुआ जाने से पहले काल किया तो पता चला कि वे अमृतसर में हैं। मैंने पूछा, वहां कैसे, उन्होंने बताया , मैं तो अमृतसर का ही रहने वाला हूं। मैंने कहा, अरे आप तो मेरे "होम टाउन"पहुंचे हुए हैं। मेरा जन्म अमृतसर हुआ है , वे बड़े खुश हुए यह जानकर कि मेरा अमृतसर से रिश्ता है। अमृतसर के बारे में वे कई बातें बताने लगे कि वहां उनके भाई हैं, वे अमृतसर खासतौर पर भाई की पोती के जन्मदिन पर गये हुए थे। जब फोन पर बात हो रही थी तो पीछे से बच्चों की प्यारी प्यारी आवाजें भी आ रही थी। इमरोज की एक नज्म जो उनकी अगली किताब में आने वाली है। आप भी पड़ें इस नज्म को .......

एक वक्त था जब हमारे पास
सिर्फ़ एक शाम होती
हम रोज शाम के मध्यम हो रहे रंगों में
चलते रहते -----चुपचप
और वक्त पास खड़ा देखता रहता.........
जब हमने हालात को पार कर लिया
वक्त भी हमारे साथ आ मिला........
आज
सुबह के रंगों में दोपहर के रंग
दोपहर के रंगों में शाम के रंग
और शाम के रंगों में रात के रंग......
चांद तारों के रंग मिल कर
जिंदगी के आंगन में जिदगी के साथ
रोज खेलते रहते हैं......

Wednesday, September 17, 2008

कदरों कीमतों के फूल हर पल खिलते हैं

कभी कभी कुछ बातें दिल पर पत्थर सी लग जाती हैं। कल दिल्ली हेड आफिस से फोन था। उधर से पूछा, "अमृता प्रीतम का लेख आपने ही भेजा था,"
"जी हां," मैंने कहा
"आप स्टाफर हैं या........"
"हां स्टाफर हूं वरिष्ठ संवाददाता , लेकिन आप क्यो पूछ रहे हैं, " मैंने सवाल किया
"हमें उस उस लेख की पेमेंट भिजवानी है "
"अरे, मैने वो लेख पेंमेंट के लिये नहीं लिखा है," एक दम मेरे मुंह से निकल गया।
फोन पर बात सुन कर मेरा दिल छोटा सा हो गया। लगा किसी ने मेरे दिल पर पत्थर मार दिया हो और वह दब सा गया हो। कुछ देर बाद मैंने ख़ुद ही सोचा की उन्हें क्या पता की मेरा और अमृता जी क्या रिश्ता है ?
दरअसल ,मैंने यह तो सोचा भी नहीं था कि अमृता जी के लेख लिखने में पेमेंट का भी सवाल उठेगा। वैसे भी मुझे मेरे लेख की पेमेंट इमरोज की तारीफ से मिल गई थी। किसी लेख की तारीफ इमरोज करें, इससे बढ़ कर कम से कम मेरे लिये कुछ नहीं हो सकता है।
इमरोज जितने अच्छे इंसान हैं उन्हें उतनी ही इंसानियम की कदर भी है। वो आम इंसान की तरह से इंसान नहीं हैं। मेरे लिये तो वे बहुत खास हैं। उन्होंने मेरी पंसदीदा लेखिका अमृता प्रीतम को इतना स्नेह दिया, अपना साथ दिया। अमृता ने भी जब इमरोज का साथ पकड़ा तो वे जमाने को भूल गईं। इमरोज ने मुझे एक अहम सवाल पूछने पर बताया , रिश्ता और विवाह दो अलग मुद्दे हें, रिश्ता विवाह से कहीं ऊपर होता है। विवाह टूट सकता है, बिखर सकता है, लेकिन रिश्ता हमेशा मन में रहता है, साथ रहता है। विवाह लोगों की भीड़ में एक रसम की तरह से ‘शुरू होता है जो कभी कभी कागज पर किये गये एक हस्ताक्षर से टूट जाता है। रिश्ते में ऐसा नहीं होता है। रिश्ते में जिस्म का साथ नहीं होता है , रिश्ता रूह का होता है। उन्होंने मुझे अपनी एक नज्म भी सुनायी जो उनकी आने वाली किताब में छप रही है। इस नज्म में रिश्तों का खूबसूरत अंदाज दिख रहा है।
सारे फूल
अपने अपने मौसम में ही खिलते हैं
कदरों कीमतों के फूल
हर पल खिलते हैं
फिर
जिस्म का साथ साथ नहीं होता है
कदरों कीमतों का साथ
ही साथ होता है
और ये साथ
हमेशा साथ रहता है

Wednesday, September 10, 2008

वो आज भी मेरे साथ है

इस ब्लॉग को मैंने अमृता प्रीतम जी के जन्मदिन पर शुरू किया था...दो पोस्ट के बाद यहाँ लिखना संभव नहीं हुआ।

खैर.....

मैंने एक लेख हिन्दुस्तान के मयूरपंख के लिए लिखा जो इमरोज से हुई बातचीत पर आधारित है...इसमे एक नज्म भी है जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया....ओ अज्ज मेरे वि नाल है ( वो आज भी मेरे साथ है )

उस कविता को भी मेने लेख में शामिल किया ये लेख ३१ अगस्त के हिन्दुस्तान के सभी एडिशन में लेकिन छपा है.... सोचती इसे आप को पड़ा दूँ ......आपको कैसा लगा ?????और हाँ .....इमरोज से हुई कई बातें भी आपसे शेअर करनी है .....लेकिन अगली बार .....

Tuesday, September 2, 2008

सच्ची कहानियों के सच्चे किरदार


अकसर प्यार को निभाने के किस्से कहानियां किताबों में पढ़ते हैं लेकिन जब सच्चा प्यार करने वाले और उसे निभाने वाले सामने हों तो उस पल को जज्ब करना आसान नहीं होता है। कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। मैं जब पहली बार अमृता प्रीतम जी और इमरोज जी से मिली तो उनका एक दूसरे के लिये प्यार मेरे दिल का छू गया। उनके बारे में बहुत कुछ पढ़ा था, उन कहानियों के किरदार मेरे सामने थे। मैं इस पल को अपने भीतर कहीं छिपा कर रख लेना चाहती थी क्योंकि वहां बस प्यार ही प्यार था। दरसअसल, उन दोनों की आंखों में एक दूसरे लिये जो भाव थे, उसे जानने के लिये उन जैसे का दिल होना जरूरी है। मेरे लिये सब कुछ अजीब लेकिन अर्थपूर्ण था। अमृता के कमरे में एक घड़ी रखी थी, जिस पर कुछ पंक्तियां लिखी थी। समय को रोक कर उस पर नज्म लिखना, कुछ देर बाद मेरी समझ में आ गया। जहां दो प्यार करने वाले रहतेे हैं ,उनके लिये समय भी ठहरा रहता है। घर में सब ओर अमृता और इमरोज दिखायी दे रहे थे। कहीं अमृता की नज्में तो कहीं नज्मों के साथ इमरोज की पेंटिंग। दोस्ती और मोहब्बत की अनोखी दुनियां से मेरा सामना हो रहा था। मैं हर चीज को ध्यान से देख कर यह यकीन करना चाह रही थी कि ये उसी घर की दीवारें हैं जिसके किस्से मैने किताबों पढ़ें है। यह वही घर में जिसमें इसी सदी में प्यार करने वाले दो लोग रहते हैं, अमृता और इमरोज। अमृता जी काफी कमजोर और बीमार दिखायी दे रही थीं। वे लेटी हुई थी, मैंने उन्हें हाथ जोड़ कर अभिवादन किया तो उन्होंने ने भी स्नेह से अभिवादन स्वीकारा। मैंने उनकी कई तस्वीरें किताबों में देखी थी, मन ही मन उन तस्वीरों से उनका चेहरा मिला रही थी लेकिन वे उन तस्वीरों से भी ज्यादा सुंदर लग रही थी, बीमारी की हालत में भी। गोरी रंगत, कोमल भाव लिये चेहरा, एकदम नाजुक सी उंगलियां। सोचने लगी कि इतनी कोमल महिला ने कैसे जमाने को एक तरफ रख कर इतने बड़े बड़े फैसले लिये, न भूलने वाला साहित्य रच दिया। रस्मों रिवाज की चादर को तह कर अपने हिसाब से जिंदगी जी।
मन में धकड़पकड़ मची हुई थी। जो सवाल पूछने के लिये नोटिंग की थी, वह तो मैं बैग से निकाल ही नहीं पा रही थी। एक दूसरे संसार में आ कर मैं अभिभूत थी।
फिर,
उनसे कई मुद्दों पर बातें हुई। वो सब मैं अपनी पिछली पोस्ट पर लिख चुकी हूं।
मेरा मन नहीं भरा था लेकिन अमृता बातचीत से काफी थक चुकी थी। इमरोज बोले, माजां थक गई है, इसे आराम चाहिए। इमरोज अमृता को इसी नाम से बुलाते हैं। नीचे की गैलरी में आ कर फिर इमरोज से भी काफी देर बातें हुई।
वो मुलाकात मेरी जिंदगी में अहम और यादगार पल हैं।
पिछले दिनों दिल्ली आयी तो सोचा इमरोज मिलती चलूं।
मुलाकात से पहले सोचती आ रही थी कि पता नहीं अपनी मोहब्बत के बिना इमरोज कैसे होंगे?
इमरोज से मिल कर नहीं लगा कि वे अमृता के बिना जी रहे हैं, फिर भी पूछ बैठी, कैसे हैं आप , अमृता के बिना, इमरोज बोले, वो गई कहां हैं, वो यहीं है इसी घर में, पिछले पचास साल से यही है मेरे साथ।
मैने पूछा, अमृता जी का जन्म दिन आ रहा है, क्या खास होगा। इमरोज बोले, हमने जन्मदिन को कभी खास तरीके से नहीं मनाया। मांजा को दिखावे से सख्त एतराज रहा है,सो अब दिखावा करने को कोई मतलब नहीं रह जाता।
बोले, अकसर लोग अपनी किताब की प्रस्तावना कराते हैं, किसी खास से लेकिन अमृता को ये भी पसंद नहीं था। जब भी किताब छपती, हम किताब ले आते, रास्ते से फूल खरीदते, किताब को फूल पर रख कर ले आते, यह काम
मेरा ही होता था। मुझे तो ऐसे लगता जैसे अमृता को फूलों पर बिठा कर ला रहा हूं।
इमरोज पेंटिंग करते थे लेकिन फिर नज्म कैसे लिखने लगे, यह अगली बार बतायूंगी
लेकिन एक बात का जिक्र करना चाहूंगी। वहां से लौट कर मैंने अपने दिल्ली आफिस में बात की और बताया कि मैं अमृता जी के जन्म दिन पर कुछ भेज रही हूं।
वह लेख हिंदुस्तान के मयूरपंख पेज पर 31 अगस्त को छपा। मेरे लिये अमृता जी के बारे में लिखना बेहद खास था लेकिन इससे भी खास रहा, इमरोज ने फोन कर बताया ,
´आज किसी ने बताया कि हिंदुस्तान में कुछ छपा है अमृता के बारे में , सो मैने अखबार मंगवाया और पढ़ा। देखा तो आपका लेख था। काफी अच्छा लिखा है आपने।`
मेरे लिये अपनी तारीफ और वह भी इमरोज के मुंह से, बड़ा अनुभव है। यह भी खास रहा कि इस लेख को अहमद फराज के लेख के साथ ही स्थान मिला, फराज साहब का 25 अगस्त को देहांत हुआ हैं। इस बात को इमरोज ने नोटिस लिया और मुझसे शैअर भी किया । अहमद फराज का लेख कवि केदार नाथ जी की ओर से रहा। वैसे अमृता के साथ हर पल कुछ अनोखा ही होता रहा है, जग से अलग थी वे।