Saturday, March 7, 2009

ऐ वूमेन विद माइंड


एक दिन अमृता और इमरोज चले जा रहे थे, अमृता ने इमरोज से पूछा, क्या तुमने कभी वूमेन विद माइंड पेंट की है? यह बात 1959 की है। चलते चलते इमरोज रूक गये। उन्होंने अपने इधर उधर देखा, उत्तर नहीं मिला। दूर तक भी देखा, जवाब का इंतजार किया लेकिन कोई आवाज नहीं आयी। इसके बाद इमरोज उत्तर खोजने निकल पड़े और पेंटिंग के क्लासिक काल में ताकि अमृता की सोच वाली औरत और औरत के अंदर वाली औरत की सोच, उसके रंग कहीं दिख जाएं लेकिन ऐसे रंग और पेंटिंग कहीं नहीं मिली। इमरोज हैरान हो गये, अपने उपर भी और समाज पर भी , कहीं वैसी औरत नहीं मिली जो अमृता की सोच से मेल खा सके। किसी भी चित्रकार ने औरत को एक जिस्म से अधिक कुछ नहीं सोचा था। जिस्म के साथ केवल सोया जा सकता है, अगर औरत को औरत माना जाता तो उसके साथ जागने की बात भी होती। ऐसा किसी पेंटिंग में दिखायी नहीं दिया इमरोज को। अगर औरत के साथ जाग के देखा होता औरत की जिंदगी बदल गई होती। जिंदगी जीने लायक हो जाती। अमृता ने जिस औरत की पेंटिंग करने के लिये कहा था, वह पेंटिंग इमरोज 1966 में बना पाए।


Sunday, January 11, 2009

तीन दिन अब सारे मेरे

कई बार तकदीर को आने वाले दिनों का अनुमान हो जाता है लेकिन इसके बारे में और कोई नहीं जान सकता। होनी को पता था कि कविता और पेंटिंग की किसमत तीन दिनों में लिखनी है। बाद में अमृता और इमरोज के जीवन के ये तीन दिन ऐसी महक ले कर आये जिससे उनकी प्यार की बगिया तीन कालों तक महकती रही।

तीन दिनों की भी एक कहानी है जब अमृता और इमरोज साथ साथ नहीं रहते थे।यूंही एक दिन अमृता को इमरोज ने बताया कि उसे एक नौकरी मिल गई है, वह मुंबई जा रहे हैं। अमृता यह जान कर तो खुश हुई कि अपनी खुशी को सबसे पहले इमरोज ने उसी के साथ बांटा है लेकिन यह सोच का उदास हो गई कि इमरोज दूर चले जायेंगे। उस दिन अमृता ने आंखों की नमी को किताब के पीछे छिपा लिया, कहा कुछ नहीं। जाने में तीन दिन थे, अमृता ने इमरोज से कहा, अब ये तीन दिन मेरे हैं, इन्हें मैं अपने हिसाब से खर्च करूंगी।

बहुत बाद में उन तीन दिनों को अमृता की कलम ने कुछ यूं कहा

कलम ने आज गीतों का काफिया तोड़ लिया है

मेरा इश्क यह किस मुकाम पर आ गया है

उठो अपनी गागर से पानी की कटोरी दे दो

मैं राहों के हादसे उस पानी से धो लुंगी

सालों साल गुजर जाने के बाद इमरोज ने उन तीन दिनों को अपनी नज्म में कुछ यूं उतारा।


हम मस्त चल रहे
थे
यह बात तब की है

जब मैं दिल्ली छोड़ कर

दूसरे शहर रवाना हो रहा था
वहां मुझे मेरी मर्जी का काम मिल रहा
था
जाने में अभी तीन दिन बाकी
थे
और तुमने कहा थाये तीन दिन अब सारे मेरे

मौसम पीले फूलों का
था
सड़कें बाग बगीचे पीले फूलों की महक से सराबोर
थे
हमने सारा दिन पीले फूलों के बीच
गुजारा
एक दूजे को चुपचाप देखते हुए

नजरों से एक दूसरे को

कुछ कहते कुछ सुनते हुए

पीले फूल हम पर बरस रहे
कभी हमारे होंठो
पर
कभी हमारे दिलों
पर
कभी हमारी सोचों
पर
वक्त को तो नहीं

लेकिन खामोशी को कहीं यह पता था

कि ये तीन दिन जिंदगी के
के
तीनकाल बन जाएंगे